मार्च 8, 2018
साउथ गारो हिल जिला, मेघालय
सिजु गुफा और पक्षी अभ्यारण्य का एपिसोड पूरा हो गया। मैंने अविस्मरणीय यादों के साथ 11.15 बजे सिजु को अलविदा कह दिया। गारो हिल में मिले प्यार ने मुझे कई बार भावुक बना दिया। जहां से भी रवाना होता तो लोग जरूर पूछते, ” वापस कब आओगे?” मैं कहता जल्दी ही आऊँगा। लेकिन मुझे मालूम था शायद कभी नहीं।
अब अगला गंतव्य बालपकरम नेशनल पार्क होगा। मुझे यहाँ से बालपकरम जाने के लिए महादेव बार्डर आउटपोस्ट (बी॰ओ॰पी॰) जाना होगा। महादेव में ही रात्रि-विश्राम के लिए फॉरेस्ट गेस्ट हाउस है। बालपकरम में प्रवेश के लिए बाघमारा से परमिट मिलता है।

बाघमारा और सिजु की दूरी कहने को तो 35 कि॰मी॰ है लेकिन खराब सड़क के कारण इसे तय करने में 1.30 घंटे लग जाते हैं। इस सड़क पर मोटरसाइकल चलाना काफी चुनौतीपूर्ण था। अब सड़क पुनः सोमेश्वरी नदी के साथ-साथ चलने लगती है। नदी का बहाव क्षेत्र 500-2000 मीटर तक चौड़ा हो गया है। नदी वी आकार की पतली घाटी को पीछे छोड़ चुकी है। अब यह यू आकार की घाटी में रमणीय तटों का निर्माण करती है, जिसने मेरे जैसे एकल यात्री के मनोबल को बढ़ाने का काम किया।



दोपहर 12.45 पर मैं बाघमारा में था। मेरे पास कुछ 1700 रुपये नगद बचे थे। इसलिए अब एटीएम से पैसे निकालने होंगे। यहाँ पूछने पर मालूम हुआ, कलक्ट्रेट ऑफिस में शहर का एकमात्र एटीएम है। लेकिन वह एटीएम खराब था। फिर पता किया तो एक व्यक्ति ने एसबीआई शाखा से पैसे निकलवाने की सलाह दी। कलक्ट्रेट ऑफिस के नजदीक ही फॉरेस्ट ऑफिस है। तो मैं पहले परमिट बनवाने के लिए फॉरेस्ट ऑफिस चला गया। आधे घंटे में तमाम कागजी कार्यवाही के बाद मेरे हाथ में बालपकरम का परमिट था। अभी दो काम और बचे थे। एटीएम से पैसे निकलवाना और मोटर साइकल की टंकी फुल करवाना।

2 बजे का समय था। बैंक का भोजन-अवकाश समाप्त हो चुका था। ग्राहकों की लंबी कतार लगी थी। ज़्यादातर ग्राहक एटीएम के खराब होने के कारण बैंक से पैसे निकलवाने आए थे। मैं कतार से बचते हुये एक बाबू के पास पहुंचकर मैंने कहा, “एटीएम कार्ड से पैसे निकलवाने हैं।” वह ग्राहकों के साथ व्यस्त था। कोई जबाव नहीं दिया। मेरे दोबारा पूछने पर उसने कहा, ” मैनेजर से बात करो”
“मैनेजर कौन है?”
उसने एक खाली सीट की तरफ इशारा करते हुये कहा, ” थोड़ा वेट करो, आते होंगे।”
मेरे साथ एक बीएसएफ़ का जवान उसके घर पैसे भेजने की जुगत में था। उसकी वर्दी पर लगी नेमप्लेट पर लिखा था ” हेमराज जाट”। कद काठी से राजस्थानी लग रहा था। तो मैंने पूछ ही लिया, “सर, कहाँ से हो?”
उसने उत्सुकता से बताया, “राजस्थान।” फिर बोला, “टोंक जिले से हूँ।”
मुझे बड़ा अच्छा लगा, देश के सुदूर हिस्से में कोई तो राजस्थानी मिला।
फिर बातों का सिलसिला ऐसा शुरू हो गया जैसे कोई दो पुराने मित्रों की अचानक से कही मुलाक़ात हो जाए। हमने अपने मोबाइल नंबर एक्सचेंज किए। हेमराज ने बीएसएफ केंप में रात भर रुकने का न्योता दिया। लेकिन शाम तक महादेव पहुँचना था।
इतने में मैनेजर आ गया। उसने बताया पिछले दो दिन से सर्वर काम नहीं कर रहा है। इसलिए पैसे नहीं निकल पायेंगे। मैं बैंक से निराश लौट आया। मन ही मन जेब में पड़े रुपयों व आगे दो-तीन दिन में होने वाले संभावित खर्चों का हिसाब लगाते-लगाते पेट्रोल पम्प पहुंचा। अब यहाँ भी एक विपत्ति मेरे इंतज़ार में तैयार थी। बोर्ड लगा था “मशीन खराब है।” सेल्समन ने बताया, “अभी घंटे भर पहले पेट्रोल डालने की मशीन खराब हुई है। इसे ठीक करने के गुवाहाटी से कल इंजीनियर आएंगे।” उसकी काफी मान-मनोव्वल की लेकिन पेट्रोल नहीं भरवा पाया। यह भी मालूम हुआ कोई दूसरा पेट्रोल पम्प भी यहाँ नहीं है।
मैंने एक से खीजते हुये पूछा, “आप लोग वोट नहीं करते है क्या चुनावों में। यहाँ कोई भी सुविधा नहीं है।”
उसने बंगाली लहजे में बोला, “भाईसाहब ये साउथ गारो हिल नहीं शॉर्ट गारो हिल है।” उसकी सारी पीड़ा इस वाक्य में बयान थी। यहाँ अँग्रेजी शब्द साउथ को उसके दूसरे शब्द शॉर्ट ने बदल दिया। उसने ही बताया, “देखो! सामने की दुकान पर 75 रुपये/लीटर वाला पेट्रोल ब्लैक में 120 रुपये/लीटर मिल रहा है। और लोग खरीदने को मजबूर है।”
मैं यहाँ किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया। अब इतने पैसे नहीं थे कि दो-तीन दिन का पेट्रोल भी ब्लैक में खरीद लिया जाये और खर्चा भी चला लिया जाये। थोड़ी देर खड़ा सोचता रहा। फिर मन ही मन तय किया, “अब चलना चाहिए, जो होगा देखा जायेगा।” मैंने 6 लीटर पेट्रोल डलवा लिया। अब मोटरसाइकल में लगभग 9-10 लीटर पेट्रोल हो गया था। यहाँ से महादेव बीओपी 55 कि॰मी॰ है, पहुँचने में शाम हो जायेगी। इसलिए बिना किसी देरी के आगे का सफर शुरू कर दिया।
साउथ गारो हिल जिला भारत से सबसे पिछड़े 250 जिलों में शामिल है। बाहरी दुनिया के लिए आज भी यह रहस्यमही स्थान है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट थी, आधुनिक विकास का नंगा नाच अभी यहाँ खेला जाना बाकी है। अगले 10-15 सालों में इसका भूगोल बदल जाएगा। बालपकरम के रास्ते भर मेरे मन में कई सवाल कुलबुलाते रहे। मैं खुद से पूछता, “भारत में एक नागरिक होने की हैसियत क्या है? मुख्य भूभाग से इतना कटे हुए तथा उपेक्षित होने के बाद भी कौनसी शक्ति है जो इन लोगों को भारत से जोड़े हुए रखती है।”

रोंगरा में सोमेश्वरी नदी की सिजु में बिछड़ी हुई बहन गोनेश्वरी के दर्शन होते है। दोनों की माँ सिमसांग नदी है। सिजु के करीब सिमसांग अपनी देह त्याग कर दो बेटियों सोमेश्वरी और गोनेश्वरी को जन्म देती है! दोनों बहनें रंग-रूप और वेषभूषा में एक जैसी हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मेघालय पठार में पैदा हुई ये दोनों बहनें अपने पीहर को छोड़ ससुराल बांग्लादेश में चली जाती हैं! दोनों ही बांग्लादेश के मैदान में खंड-खंड हो जाती है।

मैं मेघालय पठार के तलहटी में पूर्व दिशा की ओर चल रहा था। हरेक कोस में एक नदी पठार से उतरकर बांग्लादेश में जाती दिखती है। सीधे हाथ की ओर बांग्लादेश मैदान का विहंगम नजारा था। सांझ की बेला में आकाश सिंदूरी होकर मचल उठा। कही कही बादलों की टोली आसमान से सैटेलाइट की भांति धरती की निगरानी करती दिखी। मोटरसाइकल तो दौड़ ही रही थी, मन भी कल्पना लोक में था। अचानक एक घुमाव पर मोटरसाइकल अनियंत्रित हो कर सड़क से उतरने लगी। अचानक हुए इस घटनाक्रम से मुझसे थोड़ा आगे चल रही नव युवतियों की एक टोली में भगदड़ सी मच गई। कुछ डर कर गिर गई, कुछ भाग खड़ी हुई। लेकिन ईश्वर की कृपा थी मोटरसाइकल की गति कम थी। न मोटरसाइकल ही गिरी और न ही किसी को कोई नुकसान हुआ। मैंने उन युवतियों से अविलंब माफी मांग ली। मेरे माफी मांगने के अंदाज़ से संभावित तनाव भरा माहौल युवतियों की हंसी-ठिठोली में बदल गया। ऐसा हरियाणा या उत्तर प्रदेश के किसी देहात में हुआ होता तो पिटाई पक्की थी।

5 बजे तक मैं बालपकरम के मुख्य दरवाजे पर था। परमिट दिखाने पर, फोरेस्टर ने गेस्ट हाउस की व्यवस्था करवा दी। वह गेस्ट हाउस यहाँ से एक-डेढ़ किलोमीटर है। यह सुनसान जगह पर जंगल से घिरा हुआ है। इसे एक टीले पर जंगल को साफ करके दो ही साल पहले बनाया गया है। आवाज़ लगाने पर एक औरत बाहर आई। मैंने पूछा, “इसकी देखभाल कौन करता है?”
“चाबी किसके पास है”
उसने गारो में कुछ बोला।
फिर मैंने अंग्रेजी में समझाया।
दोबारा भी गारो में जबाव आया।
हम दोनों के पास भाषा तो थी लेकिन एक दूसरे को उसकी समझ नहीं थी।
एक दूसरे की बेबसी पर ख़ूब हंसी भी आ रही थी।
इसी बीच उसने एक हिन्दी शब्द “चौकीदार” बोला। लेकिन बात नहीं बनी। थोड़ी देर में उसका छोटा भाई आया। जिसने इस गेस्ट-हाउस के निर्माण के लिए आये कारीगरों से हिन्दी सीख ली थी। वह चौकीदार को बुलाकर लाया। सामान रखकर हम खाने के लिए दाल-चावल ले आए। लकड़ी से चूल्हे पर खाना बनाया। रात 8 बजते-बजते फिज़ाओं में घनघोर चुप्पी थी और मैं गेस्ट-हाउस में अकेला था।


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