सरिस्का: प्राचीन नगर राजौर व मंदिरों का खोया हुआ संसार

मंगलसर बाँध से कांकवाड़ी एक्सेस रोड पर आगे बढ़ते हैं। दूर रास्ते से ही नीलकंठ मंदिरों का गेटवे नजर आने लगता हैं। यहाँ सड़क कच्ची हैं। क्योंकि यह इलाक़ा सरिस्का टाइगर रिज़र्व के बफर जोन में होने के कारण पक्की सड़क का निर्माण निषेध हैं। पहाड़ी पर सड़क घुमावदार मोड़ लेते हुए ऊपर की ओर जाती हैं। थोड़ी मशक्कत के बाद इस पहाड़ी पर कार का जिगजैग चढ़ना रोमांचक अनुभव हैं।

यहाँ पहुँचते-पहुँचते अरावली की पहाड़ियां 600 मीटर से ज्यादा ऊँची चली जाती हैं। यह सरिस्का टाइगर रिज़र्व का दक्षिण-पश्चिमी भाग हैं जो ऊँचे प्लेटफॉर्म पर तस्तरीनुमा घाटी जैसी विशिष्ट आकृति बनाता हैं।

यह 8-12 वीं सदी तक फला -फूला जो उत्तर भारत का प्रमुख नगरीय एवं सांस्कृतिक केंद्र बन गया। 17 वीं सदी में औरंगजेब के शासन काल में विध्वंस के बाद से इनका वैभव जाता रहा।

बड़गूजरों की राजधानी कन्नौज से राजौर या पारानगर का सीधा संवाद था। यह क्षेत्र जगलों व पहाड़ों से घिरा दुर्गम भू-भाग हैं जो रणनीतिक और सुरक्षा की दृष्टि से उत्कृष्ट स्थान बन गया। ऐसा माना जाता हैं यहाँ बड़गुजर काल में करीब 365 मंदिरों का निर्माण हुआ, एक मंदिर देवता विशेष को समर्पित था। मंदिर को स्थानीय लोग देवरी कहते हैं जैसे गणेश देवरी, हनुमान देवरी आदि।

लिच्छुक यानी नीलकंठ महादेव मंदिर

यहां स्थित मंदिरों में यहीं एकमात्र मंदिर हैं जो कुछ हद तक मूल रूप में हैं और यहां आज भी पूजा होती हैं। गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित करवाया गया हैं।

हालांकि इसका आगे का हिस्सा खत्म हो चुका हैं।

जबकि मंदिर का पिछला हिस्सा काफी हद तक अपने मूल रूप में हैं।पिछले दोनों कोनों पर शिव परिवार विराजमान हैं।

इस मंदिर के संबंध में लिखित साक्ष्य समीपवर्ती प्राचीन राजौरगढ़ से मिले शिलालेख (राजौरगढ़ शिलालेख, सन 960 ईस्वी) में मिलते हैं। इस संबंध डॉ. गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि 10 वीं शताब्दी में राज्यपुर (राजोरगढ़) पर प्रतिहार गोत्र का मथनदेव राज्य करता था और वह महीपाल (कन्नौज राजधानी) का सावंत था। मथन देव ने अपनी माँ लिच्छुक के नाम पर ही लिच्छुक महादेव मंदिर का निर्माण करवाया।

मंदिर का आंतरिक हिस्सा भव्यता से पूर्ण हैं, खंभों पर भावपूर्ण एवं उकृष्ट शैली की मूर्तियां उकेरी गई हैं जिसमें प्रमुख गणिकाएं, अप्सराएं, संगीतकार, कीचक प्रमुख हैं।

नटराज, उमा महेश्वर, त्रिपुरान्तक शिव, विष्णु का प्रतीक चक्र, रुद्र द्वारा अंधकासुर का वध अन्य प्रमुख मूर्तियां उकेरी गई हैं।

प्राचीन राज्यपुर या राजौरगढ़ या पारानगर

यहां शिलालेख के मिलने से राजौरगढ़ के इतिहास से पर्दा उठता हैं। गुजर-प्रतिहार वंश जिसकी राजधानी कन्नौज थी, जिसके सावंत यहाँ शासन करते थे। राजौरगढ़ कालांतर में पारानगर कहे जाने लगा। आज इस नगर के खुर्द-बुर्द अवशेष इधर उधर बिखरे हैं।

सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन

इस लेख से गुर्जर जाति के किसान होने की भी सूचना प्राप्त होती है। यहां मुख्य रूप से मीना जनजाति और गुर्जर जाति के लोग रहते हैं। मुख्य आजीविका कृषि और पशुपालन हैं। शांतिनाथ मंदिर चार तरफ कृषि-

बदलते दौर के साथ शासन बदलते हैं, साथ ही नीतियाँ बदल जाती हैं। राजाओं द्वारा दिया जाने वाला संरक्षण भी इसी का हिस्सा था। बड़गुजरों के बाद कच्छवाहों का शासन आया, लेकिन राजौरगढ़ का स्वर्णिम दौर इतिहास हो चुका था।

मंदिर काम्प्लेक्स में जल संग्रहण की व्यवस्था और धार्मिक स्नान के लिए बावड़ी का निर्माण करवाया गया।

नौगज शांतिनाथ मंदिर

13 फ़ीट ऊंची एक मूर्ति, नीलकंठ मंदिर से 100 के दायरे में हैं। राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे शिलालेख के अनुसार यह जैन तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित हैं, जिसका निर्माण 922-23 में कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार शासक महिपाल-I के कार्यकाल में बनवाया गया।

मंदिर वर्गाकार चबूतरे पर बना हैं। मंदिर के चारों तरफ चार दिवारी हैं। चार दिवारी व चबूतरे के बीच सुरक्षा की दृष्टि से गहरी खाई बनाई गई हैं। वर्तमान में इस खाई में हज़ारों की संख्या में अवशेष पड़े हैं

इस तरह यह जगह अरावली पहाड़ियों का अपना खजुराओ हैं।राष्ट्रीय पक्षी मोर बहुतायत में मिलता हैं।

इन स्मारकों के महत्ता को देखते हुए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने यहां एक सुरक्षा चौकी बना रखी हैं।

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